Vaidik vivah वैदिक कालीन विवाह संस्कार

        वैदिक विवाह के प्रकार।                                     वैदिक कालीन सभ्यता में, विवाह संस्कार का अति महत्वपूर्ण स्थान है जिसमें वर वधु परिणय सूत्र में बंध कर इस संस्कार को निभाते हैं।                                   विवाह का अर्थ- विवाह शब्द का अर्थ "व्युत्पत्ति"की दृष्टि से ले जाना होता है। विवाह का अर्थ है वधु को उसके पिता के घर से विशेष रूप से ले जाना अथवा पत्नी बनाने के लिए ले जाना। हमारे साहित्य में अनेक ऐसे शब्द में मिलते हैं जो विवाह को स्पष्ट करते हैं जिसमें परिणय, उपयम , आदि। परिणय का अर्थ है चारों ओर घूमना, विवाह संस्कार में एक रस्म होती है जिसमें वर और वधु को अग्नि की परिक्रमा करके संकल्पित होना पड़ता है यही परिणय कहलाता है। विवाह संस्कार के माध्यम से हिंदू धर्म में इसका उद्देश्य पति और पत्नी के सहयोग से विभिन्न पुरुषार्थ को पूरा करना होता है। वैदिक संस्कारों में उस समय प्रचलित प्रमुख विवाह को हम अपने लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं।                                                              1-ब्रह्म विवाह- वैदिक संस्कारों के अंतर्गत विवाह हेतु ब्रह्म विवाह को सबसे उत्तम विवाह माना जाता था। इस विवाह के अंतर्गत वधू का पिता ऐसे सिलवान कर्तव्यनिष्ठ, वेदों को जानने वाले युवक की तलाश कर अपने घर बुलाता था तथा ऐसे सिलवान व्यक्ति को अपनी पुत्री विवाह संस्कार के माध्यम से प्रदान करता था इस विवाह का मुख्य उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक कर्तव्य के पालन द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करना होता था इसी कारण इस विवाह का नाम ब्रह्म विवाह पड़ा तथा यह वैदिक काल में सबसे महत्वपूर्ण विवाह माना जाता था।                                                       2देव विवाह-  वैदिक संस्कारों में यहां दूसरे प्रकार का महत्वपूर्ण विवाह होता था, जिसके अंतर्गत पिता अपने घर में धार्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत यज्ञ करवाता था और यज्ञ को संपन्न करने हेतु बहुत से पुरोहितों को बुलाता था, चुकी वैदिक युग में यज्ञ करने वाले पुरोहित को पवित्र समझा जाता था अतः पिता पुरोहित को दक्षिणा के रूप में अपनी कन्या का विवाह यज्ञ अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मण से कर देता था। यज्ञ का अनुष्ठान देवताओं के लिए किया जाता था अतः इस प्रकार से होने वाले विवाह को देव विवाह की संज्ञा दी गई यह विवाह वैदिक काल में बहुत अधिक संख्या में होने वाला विवाह था।                                               3-आर्ष विवाह- यह विवाह का तीसरा प्रकार है। इस विवाह में कन्या का पिता वर्क हो कन्या प्रदान करने के बदले में एक गाय तथा 1 जोड़ी बैल लेकर अपनी कन्या देता था ताकि यहां यज्ञ की क्रिया कर सके। यह विवाह मुख्य रूप से पुरोहित परिवारों में ही प्रचलित था क्योंकि यज्ञ कार्य को पूरा करने के लिए 1 जोड़ी बैल दिया जाता था तथा इसके बदले कन्या देना आर्ष विवाह कहलाता था।                                                4-प्रजापत्य विवाह- यह विवाह वैदिक काल में साधारण रूप से दो परिवारों के आपसी सामंजस्य से होता था जिसके अंतर्गत पिता अपनी पुत्री को यह कह कर विदा करता था की अब तुम दोनों गृहस्थ धर्म का आचरण करो इस प्रकार से अपनी पुत्री को वर के पास छोड़ता था यही विवाह प्रजापत्य विवाह कहलाता था।  5 असुर विवाह-   असुर विवाह वह विवाह होता था, जिसके अंतर्गत कन्या पक्ष कन्या के बदले वर पक्ष से धन लेता था इस प्रकार से किया गया वहां असुर विवाह कहलाता था। ऐसे विवाह में वर कन्या को या कन्या पक्ष के लोगों को मनचाहा धन देकर कन्या को प्राप्त करता था। इस प्रकार से प्राप्त की गई कन्या देवताओं तथा कुल के वरिष्ठ की पूजन विधि में भाग लेने की अधिकारी नहीं होती थी यह विवाह भी वैदिक काल में प्रचलित था।                              

 6-गंधर्व विवाह- वैदिक काल का यह विवाह प्रेम विवाह होता था, जब कन्या तथा पुरुष एक दूसरे से प्रेम कर माता पिता के अनुमति के बगैर विवाह कर लेते थे, ऐसे विवाह को गंधर्व विवाह कहा जाता था। मनु ने ऐसे विवाह को काम वासना में लिप्त होकर किया गया विवाह कहा है। गंधर्व विवाह सभी वर्णों के लिए धर्म सम्मत था। वर्तमान समाज में भी गंधर्व विवाह का पुरजोर प्रचलन है जो कि वैदिक काल से ही चला आ रहा है।                                                      7-राक्षस विवाह- यह विवाह किसी युवती को बलपूर्वक उठाकर, उसका अपहरण कर उसके साथ विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता था।                              8- पैसाच विवाह -  विवाह का यह आठवां प्रकार है। जब कोई सोती हुई कन्या को अपने कामवसना की पूर्ति के लिए अपनाता ऐसे विवाह को पैशाची विवाह कहा जाता था। यह छल कपट द्वारा किया गया विवाह था जिसे अधर्म माना जाता था।                                                 इस प्रकार से वैदिक काल में आठ प्रकार के विवाह प्रचलन में थे, इसके अतिरिक्त भी कुछ और भी विवाह के प्रकार थे जिसका विवरण हम नीचे लेख में दे रहे हैं।                                                               अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह-  यह विवाह प्रायः कम उम्र में हो जाते थे, जब लड़की की उम्र 8 वर्ष तथा लड़के की उम्र 16 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक हुआ करती थी।वैदिक कालीन समाज में यह परंपरा देखने को मिलती है जो अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के रूप में जानी जाती है, इस तरह के विवाह को ब्राह्मण अपने तथा अपने से नीचे के स्तरों में यदि शादी करता था, तो वह शादी अनुलोम विवाह कहलाती थी।कोई स्त्री अपने से उच्च जाति के पुरुष से शादी करती थी तो वह प्रतिलोम विवाह कहलाया जाता था। जब इस तरह से बेमेल विवाह होते थे, तो ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान अपने पूर्वजों से भिन्न होती थी, अनुलोम प्रतिलोम विवाह वर्ण व्यवस्था को उजागर करने वाले प्रतीत होते थे, जिसके अंतर्गत निचले वर्ण पर उच्च वर्ण का दबाव स्पष्ट समझ में आता था।                        बहु पत्नी विवाह- यह वह विवाह होता था, जिसके अंतर्गत कोई पति अपनी जीवित पत्नी के होते हुए दूसरी शादी करता था यह विवाह बहु विवाह कहलाता था। इस विवाह के संबंध में यह मान्यता थी कि मनु ने यहां विधान दिया है कि, जब पत्नी से संतान की उत्पत्ति ना हो या उससे केवल कन्या ही जन्म लेती हो, या स्त्री झगड़ालू हो,ऐसी स्थिति में बहु पत्नी विवाह का प्रावधान वैदिक सभ्यता में दिया गया था।                 नियोग प्रथा- प्राचीन समाज में नियोग प्रथा का प्रचलन भी देखने मिलता है, जिसके अंतर्गत पति विहीन पत्नी पुत्र प्राप्ति हेतु दूसरे पुरुष के साथ संबंध स्थापित करती थी यही प्रथा नियोग प्रथा कहलाती थी कालांतर में यह प्रथा निंदनीय हो गई थी तथा इसे अधर्म माना जाने लगा ।

                   इस प्रकार से वैदिक समाज में विवाह संपन्न होते थे, जिनमें से कुछ प्रकार के विवाह आज भी वर्तमान समाज में प्रचलित है, इससे यह साबित होता है कि वर्तमान समाज भी किसी न किसी प्रकार से अपने अतीत के गुणों को लेकर चलता है जिसमें अतीत की अच्छाइयों को ज्यादा ग्रहण करता है तथा अतीत में जो निंदनीय थे उन्हें त्याग कर वर्तमान समाज आगे बढ़ रहा है।,,,,,,,,

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  1. अति सुन्दर जानकारी

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