Shung vansh सातवाहन वंश, वाकाटक वंश विशेष

                           शुंग वंश  


 शुंग वंश से संबंधित अति महत्वपूर्ण तथ्य  -    1-शुंग वंश की स्थापना पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई.पू. में अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके की थी।

2-शुंग शासकों ने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया। पाटलिपुत्र अयोध्या एवं जालंधर इस समय महत्वपूर्ण नगर थे।

3-पुष्यमित्र शुंग का संघर्ष यवनों से दो बार-इसका उल्लेखउल्लेख गार्गी संहिता करता है। प्रथम युद्ध में यवन सेना का नेतृत्व Demetriyas ने किया था। द्वितीय यवन शुंग संघर्ष में संभवत पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने शुंग सेना का प्रतिनिधित्व किया। यह युद्ध सिंधु नदी के तट पर लड़ा गया जिसमें वसुमित्र ने यवन सेनापति मेंनाण्डर को हराया। इस दूसरे युद्ध का उल्लेख। मालविकाग्निमित्रम् मैं मिलता है।

4-शुंगो का विदर्भ के साथ भी संघर्ष हुआ जिसमें पुष्यमित्र के पुत्र अग्नि मित्र और विदर्भ के गवर्नर यज्ञ सेन के मध्य जिसमें यज्ञ सेन पराजित हुआ। इस युद्ध में शुंग सेनापति वीरसेन था।

5-मालविकाग्निमित्रम् से स्पष्ट होता है कि अयोध्या से प्राप्त अभिलेखों से यह निष्कर्ष निकला गया है कि पुष्यमित्र शुंग ने अपने शासनकाल में दो बार अश्वमेघ यज्ञ कर आए थे। पतंजलि इन यज्ञ पुरोहित थे।


6-शुंग काल मैं पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे ग्रंथ पर पतंजलि ने महाभारत से लिखा और मनु ने मनुस्मृति की रचना की।

7-सांची का स्तूप इसी कालक है और बेसनगर में गरुड़ध्वज भी इसी काल में स्थापित किया गया।

वंशावलीसंपादित करें


इस वंश के शासकों की सूची इस प्रकार है -

  • देवभूति (83 - 73 BCE)शासकीय वंश था जिसने मौर्य राजवंश के बाद उत्तर भारत में 187 ई.पू. से 75 ई.पू. तक 112 वर्षों तक शासन किया। मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरान्त इसके मध्य भाग में सत्ता शुंग वंश के हाथ में आ गई। इस वंश की उत्पत्ति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। शुंग उज्जैन प्रदेश के थे, जहाँ इनके पूर्वज मौर्यों की सेवा में थे। शुंगवंशीय पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का सेनापति था। उसने अपने स्वामी की हत्या करके सत्ता प्राप्त की थी। इस नवोदित राज्य में मध्य गंगा की घाटी एवं चम्बल नदी तक का प्रदेश सम्मिलित था। पाटलिपुत्र, अयोध्या, विदिशा आदि इसके महत्त्वपूर्ण नगर थे। दिव्यावदान एवं तारनाथ के अनुसार जलंधर और साकल नगर भी इसमें सम्मिलित थे। पुष्यमित्र शुंग को यवन आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा। समकालीन पतंजलि के महाभाष्य से हमें दो बातों का पता चलता है - पतंजलि ने स्वयं पुष्यमित्र शुंग के लिए अश्वमेध यज्ञ कराए। उस समय एक आक्रमण में यवनों ने चित्तौड़ के निकट माध्यमिका नगरी और अवध में साकेत का घेरा डाला, किन्तु पुष्यमित्र ने उन्हें पराजित किया। गार्गी संहिता के युग पुराण में भी लिखा है कि दुष्ट पराक्रमी यवनों ने साकेत, पंचाल और मथुरा को जीत लिया। कालिदास के 'मालविकाग्निमित्र' नाटक में उल्लेख आया है कि यवन आक्रमण के दौरान एक युद्ध सिंधु नदी के तट पर हुआ और पुष्यमित्र के पोते और अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की। इतिहासकार सिंधु नदी की पहचान के सवाल पर एकमत नहीं हैं - इसे राजपूताना की काली सिंधु (जो चम्बल की सहायक नदी है), दोआब की सिंधु (जो यमुना की सहायक नदी है) या पंजाब की सिंधु आदि कहा गया है, किन्तु इस नदी को पंजाब की ही सिंधु माना जाना चाहिए, क्योंकि मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदिशा में यह नदी बहुत दूर थी। शायद इस युद्ध का कारण यवनों द्वारा अश्वमेध के घोड़े को पकड़ लिया जाना था। इसमें यवनों को पराजित करके पुष्यमित्र ने यवनों को मगध में प्रविष्ट नहीं होने दिया। अशोक के समय से निषिद्ध यज्ञादि क्रियाएँ, जिनमें पशुबलि दी जाती थी, अब पुष्यमित्र के समय में पुनर्जीवित हो उठी। बौद्ध रचनाएँ पुष्यमित्र के प्रति उदार नहीं हैं। वे उसे बौद्ध धर्म का उत्पीड़क बताती हैं और उनमें ऐसा वर्णन है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों का विनाश करवाया और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई। सम्भव है कुछ बौद्धों ने पुष्यमित्र का विरोध किया हो और राजनीतिक कारणों से पुष्यमित्र ने उनके साथ सख्ती का वर्णन किया हो। यद्यपि शुंगवंशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, फिर भी उनके राज्य में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गईं। पुष्यमित्र शुंग ने लगभग 36 वर्ष तक राज्य किया। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों ने ईसा पूरृव 75 तक राज्य किया। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि शुंगों का राज्य संकुचित होकर मगध की सीमाओं तक ही रह गया। उनके उत्तराधिकारियों (काण्व) भी ब्राह्मण वंश के थे। शुंग वंश के शासक मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रय था। वृहद्रय को उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने ई. पूर्व 185 में मार दिया और इस प्रकार मौर्य वंश का अंत हो गया। पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था। पुष्यमित्र ने सिंहासन पर बैठकर मगध पर शुंग वंश के शासन का आरम्भ किया। शुंग वंश का शासन सम्भवतः ई. पू. 185 ई. से पू. 100 तक दृढ़ बना रहा। पुष्यमित्र इस वंश का प्रथम शासक था, उसके पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र, उसका पुत्र वसुमित्र राजा बना। वसुमित्र के पश्चात् जो शुंग सम्राट् हुए, उसमें कौत्सीपुत्र भागमद्र, भद्रघोष, भागवत और देवभूति के नाम उल्लेखनीय है। शुंग वंश का अंतिम सम्राट देवहूति था, उसके साथ ही शुंग साम्राज्य समाप्त हो गया था। शुग-वंश के शासक वैदिक धर्म के मानने वाले थे। इनके समय में भागवत धर्म की विशेष उन्नति हुई। शुंग वंश के शासकों की सूची इस प्रकार है - पुष्यमित्र शुंग (185 - 149 ई.पू.) अग्निमित्र (149 - 141 ई.पू.) वसुज्येष्ठ (141 - 131 ई.पू.) वसुमित्र (131 - 124 ई.पू.) अन्ध्रक (124 - 122 ई.पू.) पुलिन्दक (122 - 119 ई.पू.) घोष शुङ्ग वज्रमित्र भगभद्र देवभूति (83 - 73 ई.पू.)

                आंध्र -सातवाहन वंश   

  • आंध्र में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटी में सिमुक ने लगभग 60 ई.पू. में सातवाहन वंश की स्थापना की।
  • शातकर्णी प्रथम के बारे में नायनिका और नाना घाट अभिलेख से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  • शातकर्णी प्रथम की मुद्रा"श्री सात"के प्राप्त होने से पश्चिमी मालवा में इसके अधिकार की पुष्टि होती है। गोदावरी के तट पर स्थित प्रतिष्ठान को इसने अपनी राजधानी बनाया।
  • "हाल"सातवाहन वंश का महत्वपूर्ण शासक था जिसकी महत्वपूर्ण कृति"गाथा सप्तशती"थी। इसका सेनापति विजयानंद था जिस ने लंका को विजिट किया था। हाल ने लंका के शासक की पुत्री लीलावती से विवाह किया।
  • गौतमीपुत्र सातकर्णि शक शासक नहपान को पराजित कर उसके चांदी के सिक्कों पर अपना नाम खुद वाया था।
  • गौतमीपुत्र सातकर्णि ने"वेणकटक स्वामी"की उपाधि धारण की और वेणकटक नामक नगर की स्थापना की।
  • गौतमीपुत्र सातकर्णि को"त्रि-समुद तोय-पिता-वाहन"भी कहा जाता था,जिसका अर्थ है उसके घोड़े ने तीनों समुद्रों का पानी पिया था।
  • सुनने वाद के संस्थापक एवं माध्यमिक संप्रदाय के प्रवर्तक नागार्जुन संभवतः गौतमीपुत्र सातकर्णि के समकालीन थे।
  • यशिष्ठी पुत्र पुलमावी दक्षिणा पतेश्वर की उपाधि धारण की।उसके समय में अमरावती बौद्ध स्तूप के चारों ओर वेष्टिनी का निर्माण कराया गया।
  • वशिष्टि पुत्र पुलमावी ने एक नए नगर नव नगर की स्थापना की तथा नवनगर स्वामी की उपाधि धारण की।
  • प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता टालमी ने पुलूमावी को"पोलोमैओस"कह कर संबोधित किया था।
  • यज्ञ श्री सातकर्णि इस वंश का अंतिम प्रतापी राजा था। इसने शकों द्वारा जीते हुए अपने भूभाग को पुनः जीत लिया। इसके विषय में जानकारी वायु पुराण से मिलती है। इस के सिक्के पर जहाज के चित्र मिलते हैं।
  • सात वाहनों के अधिकतर सिक्के शीशे के मिले हैं। इसके अतिरिक्त पोटीन, तांबे तथा कांसेकीकांसे मुद्राएं भी प्राप्त हुई है।
  • सात वाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी।                 कलिंग नरेश खारवेल से संबंधित तथ्य 
  • खारवेल कलिंग के तीसरे राजवंश चेदि वंश का था, उसने नंदो द्वारा कुदवाई गई नाहर को अपनी राजधानी में मिला लिया।
  • खारवेल ने अपने शासन के 90 वर्ष में ब्राह्मणों को सोने का कल्पवृक्ष भेंट किया। इस वृक्ष के पत्ते तक सोने के बने थे।
  • खारवेल ने 35 लाख रजत मुद्राओं की लागत से विजय प्रसाद नामक एक महल बनवाया था।
  • खारवेल जैन धर्म का अनुयाई था।

         वाकाटक वंश विशेष  


  • वाकाटक वंश का संस्थापक विंध्य शक्ति था। इसकी तुलना इंद्र तथा विष्णु से की जाती थी।
  • बिंदु शक्ति का पुत्र प्रवचन था जिसने सम्राट की पदवी धारण की। इसके समय में वाकाटक राज्य का विस्तार बुंदेलखंड से प्रारंभ होकर दक्षिण में हैदराबाद तक हुआ।
  • प्रवर सेन ने सात प्रकार के यज्ञ करने का श्रेय प्राप्त किया तथा प्रवर सेन ने चार अश्वमेघ यज्ञ भी किए।
  • गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री का विवाह वाकाटक नरेश रूद्र सेन द्वितीय से किया। रूद्र सेन की मृत्यु पर प्रभावती गुप्त ने अपने अल्प वयस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में अपने पिता के सहयोग से शासन किया।
  • प्रभावती के पुत्र दामोदर सेन प्रवर सेन की उपाधि धारण की इसने प्रवर पुर नामक नगर की स्थापना की।
  • प्रवचन द्वितीय ने सेतुबंध नामक ग्रंथ की रचना की।
  • वाकाटक वंश के अधिकांश शासक संयो धर्म के अनुयाई थे।
                   इस प्रकार से भारतीय इतिहास में शुंग वंश सातवाहन वंश वाकाटक वंश का महत्व रहा, जो इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जिसका अध्ययन भारतीय इतिहास को समझने में एक नई दिशा प्रदान करता है।,,,,

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